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बुंदेलखंड की प्राचीन परंपरा शहर ही नहीं बल्कि गांवों में हो रही विलुप्त

बुन्देलखण्ड की नौरता परम्परा बिलुप्त होने के कगार पर


जालौन । 


'गौर की मैं आईं देखूं, झांई देखूं, चुंदरी ओढ़ती देखूं-देखूं, बिछुआ पहने देखूं-देखूं..' उमंग और उल्लास से भरी बुन्देलखण्डी सहेलियां सूर्योदय से पूर्व तारों की छांव में नौरता खेलती, लोकगीत गाते हुए इन दिनों गौरा माई की पूजा करती थीं। वर्तमान में नवरात्र में नौरता खेलने की परम्परा शहर ही नहीं, गांवों से भी गुम होती जा रही है। नौरता के लोकगीत भी अब खामोश हो चले हैं। नई शहरी पीढ़ी इस पुरानी परम्परा से लगभग अनजान ही है। 



फोटो :टिहुआ व झिंझियां


दसवीं शताब्दी से शुरू हुआ सुआटा खेल उस समय की 


उथल-पुथल और बाहरी आक्रमणकारियों द्वारा बलात कन्याओं के अपरहण के डर से शुरू हुआ बताया जाता है। जिसमें भूत रूपी आक्रमणकारियों से कन्याओं के बचाव के लिये उनकी आराधना की जाती है। साथ ही भूत को खत्म करने वाली देवी हिमानचलजू की कुँवर अर्थात पार्वती देवी की आराधना भी की जाती है। यहां पार्वती देवी को गौरा, तथा महादेव को गौर मानकर गीत गाये जाते रहे हैं। इन लोकगीतों में शब्दों को खास अंदाज में दोहराने वाली बुन्देली झलक बहुत कर्णप्रिय लगती है। पहले दिन एक चैक में आलेखन बनाई जाती है। इस प्रकार अगले दिन दो फिर आठवें दिन तक लीप कर चैक पूर कर आठ नयी और सुन्दर आलेखने बनाईं जातीं हैं।


ब्रह्म बेला में सब कुआँरियाँ स्नान कर 'नौरता' के भूत यानी 'सुआटा' को पूजने जाती थीं। सुआटा को भी भगवान शिव का अंश मान लिया जाता है। क्यों कि भगवान शिव ही राक्षसों के भी देवता हैं और गौरा उनकी प्रिया 'पार्वती' भी हैं। इसके लिये किसी मुखिया के मकान के चबूतरे की दीवान पर मूछों वाले राक्षस सुआ या सुआटा का चित्र बनाया जाता है। उसके पास लिखा जाता है-यह भूतों का राजा है, देखने वालों का चाचा है।' कहीं-कहीं नौरता के बगल में जमीन पर 'गौर' यानी गौरी मैया की तस्वीर बनाई जाती थी। क्योंकि यह गौरी पूजन का भी पर्व है। नौरता स्थानीय लोक कला का अनुपम उदाहरण है। नवरात्र के पहले तीन दिन पीली मिट्टी की गौर, उसके बाद के तीन दिन चिकनी मिट्टी व सातवें दिन पोता मिट्टी की गौर बनाई जाती हैं।


नवमी को उपवास रखा जाता है। पहले दिन एक से शुरू कर आठवें दिन तक आठ सुन्दर आलेखनों को चबूतरे पर चैक पूर कर बनाया जाता है। आठों दिन गौर के भ्रमण के लिये गोबर से रास्ता बनाया जाता है। जो आज के रैड-कार्पेट की तरह होता है। यह दिन-प्रतिदिन दिन थोड़ा लम्बा होता जाता है। इसे बनाकर लड़कियां गातीं हैं- जे काऊ हमाई 'गैल' कूचै-गैल कूचै, ऊकी टांगैं टूटें-टांगैं टूटें। अर्थात जो भी हमारे बनाये रास्ते को कुचले, उसके पैर टूट जायें।


गौरा से उसका श्रंगार इस प्रकार गा कर मांगा जाता है- 'गौरा, गौर कौ सिंगार, गौरा, मोय खौं दिये। गौरा, गौर जैसी चूड़ी गौरा मोय खौं दिये। गौरा, गौर कैसी बैंदी गौरा, मोय खौं दिये। गौरा गौर कौ श्रंगार, गौरा मोय खों दिये..' और 'गौर मांगे आयल-आयल हम चढ़ावें पायल-पायल, गौर माँगे अंगन-अंगन, हम चढ़ावें कंगन-कंगन, गौर मांगे ऐंदी-ऐंदी, हम चढ़ावें बैंदी-बैंदी..' गौर या सुआटा के पूजन में दूध और पानी का प्रयोग किया जाता है, जिसके पात्र में बालिकाऐं अपने बालों को डुबो कर उससे आराध्य पर छिडक कर चढ़ाती हैं। बाकी लड़कियाँ गाती हैं-'श्री..जी की कुंअर अनायतीं, नारे सुआ हो नमयें खों रखियों उपास सुआ, दसयें खों दसरऔ जीतियौ, नारे सुआ हो नमयें खों रखियों उपास सुआ..।'


पानी के पात्र मेें लड़कियां गौरी की झाईं यानी छाया देखती हैं। गौरी का पूजन कर उनसे अच्छा वर, अच्छी ससुराल और परिवार की सुख समृद्धि की कामना की जाती है। खूब सारे लोगगीत गाती हैं, जिनमें यह वाला काफी जानकारीप्रद और रोचक है-'घोड़ा मारी लाता-लाता, जा पड़ी गुजराता-गुजराता। गुजरात के रे बानियां-बानियां, बम्मन-बम्मन जात के, जनेऊ पैरें तांत के। टीका देवें रोरी कौ, हाथ चरावें कोरी कौ। आओ-आओ अंगना-अंगना, तो खौं पूजें टंगना-टंगना। साड़े-गाड़े फूल चढ़ावें, गौर की बिन्नाई चढ़ावें। गौरा रानी कहां चली, मड़ुआ के पेडें। मडुआ सिया-राम जौ-पानी पिया-राम। तिल के फूल, तिली के दानें। चन्दा उंगै बड़े भुन्सारें, तुम घरै होओ, लेपना-पोतना, हम घरै होंयें भोजना-पानियां..., कौन सखी-री मोरी सुरझा बेटी, नेरा तौ अनायें सुआ.. । नेरा तौ अनैयौ बेटी नौ दिना नारे सुअ हो, नमयें खों करियौ उपास सुआ। दसयें खों दसरऔ जीतियौ नारेसुआ, नमयें खौं करियो उपास सुआ..।' यह प्राचीन सामूहिक सहयोग की परम्परा अब लुप्त होती जा रही है। जिसे बचाने के लिये लड़कियों को आगे आना होगा।


ऐसे होता है नौरता का समापन-


नवमीं के दिन लड़कियां शिव-गौरा का विवाह करती हैं, जिसे कहीं-कहीं सुनरा-सुनरिया की शादी भी कहा जाता है। सामान्य विवाह की तरह हर रस्म निभाई जाती है। गौरा का सोलह श्रंगार होता है। इस उत्सव में आस-पास के लोग भाग लेते हैें। नवरात्र के अंतिम दिन उपवास तोडने के समच घर-घर से भोजन-प्रसाद और पैसे माँगे जाते हैं। अष्टमी की शाम को झिंझरी बनाई जाती है। झिंझरी एक छेदवाला मटका होता है, जिसमें जलते दिये को रखने से उनके छेदों में से झांकती रोशनी की अलग छटा दिखाई देती है। इसे लेकर कुआरी कन्यायें घर-घर जाकर रोशनी फैलाने की चेष्टा करते हुए सुहावने लोकगीत गाती हैं। अन्तिम दिन नवमी का प्रसिद्ध लोकगीत है- 'पूंछत-पूंछत आये हैं नारे सुआ हो, कौन बड़े जू की पौर सुआ। पौर के पौरइया भैया सो रहे नारे सुआटा हो निकरौ दुलैया रानी बायरें हो.. कौन बड़े जू की पौर सुआ..। 


घर से जब गृहणी निकलकर आती है, तो सब मिल कर गाती हैं- 'नौनी सलौनी भौजी, कंत तुम्हारे भौजी, वीरन हमारे भौजी, झिल-मिल झिल-मिल आरसी, महादेव तोरी पारसी अर्थात हे सुन्दर भाभी जो तुम्हारे पति हैं, वे हमारे भाई हैं, आपकी जोड़ी आइने में झिल-मिल कर रही है, इसमें महादेव की छवि नजर आ रही है। इससे ग्रहणी खुश होकर इन्हें कुछ दान देती हैं। यदि नहीं देती हैं तो गाती हैं- 'चूल्हे पीछें हड़ा गड़ो है, ऊ में धरी अशीस सुआ..'  आखिरकार कुछ न कुछ लेकर और फिर आशीष देकर लड़कियों की यह टोली अगले घर की ओर बढ़ जाती है। लगता है कि समाज में सामूहिकता का भाव और प्रेम लाने का यह लड़कियों का प्रयास होता था ताकि संगठित समाज उन्हें सुरक्षा दे सके। चन्दा एकत्रित कर सामूहिक रूप से यह कुँवारी कन्यायें खेल वाले स्थान पर इकी होकर एक छोटी-सी पिकनिक मनाती थीं। यहाँ ये कन्यायें ठिल-ठिलाती हैं, हंसती हैं और गाँव भर का नाम लेकर विवाहिताओं को संतान देने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हुए लोकगीत बुलन्द करती हैं- 'फलाने की बहू' को पेट पिराने..,।


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