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NMC बिल में क्या प्रावधान हैं? जिनका विरोध कर रहे हैं डॉक्टर

जानें कि भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं का क्या हाल है और क्यों यह बिल लाया जा रहा है.


क्या है आईएमए की दलील


आईएमए का कहना है कि इस बिल की वजह से मेडिकल कॉलेजों में चिकित्सा शिक्षा महंगी हो जाएगी। बिल में कहा गया है कि मेडिकल कॉलेजों के प्रबंधन 50 फीसदी से ज्यादा सीटों को अधिक दर पर बेच पाएंगे। साथ ही उनका कहना है कि इस बिल में मौजूदा धारा-32 के तहत करीब 3.5 लाख लोग जिन्होंने चिकित्सा की पढ़ाई नहीं की है उन्हें भी लाइसेंस मिल जाएगा। इससे लोगों की जान खतरे में पढ़ सकती है। साथ ही आईएमए ने यह भी कहा कि इस बिल में कम्युनिटी हेल्थ प्रोवाइडर शब्द को ठीक से परिभाषित नहीं किया है। जिससे अब नर्स, फार्मासिस्ट और पैरामेडिक्स आधुनिक दवाओं के साथ प्रैक्टिस कर सकेंगे और वह इसके लिए प्रशिक्षित नहीं होते हैं। अब तक मेडिकल शिक्षा, मेडिकल संस्थानों और डॉक्टरों के रजिस्ट्रेशन से संबंधित काम मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की जिम्मेदारी थी। लेकिन बिल पास होने के बाद एनएमसी विधेयक मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की जगह लेगा


आईएमए की हुई बैठक


एनएमसी बिल के विरोध में बुधवार को आईएमए भवन में चिकित्सकों की बैठक आयोजित हुई। बैठक में आईएमए ने कहा कि नेशनल मेडिकल कमीशन बिल के खिलाफ लड़ाई जारी रहेगी। चिकित्सकों ने कहा कि बिल में कई आपत्तिजनक पहलू है। जिसमें गैर चिकित्सकों को साधारण प्रशिक्षण देकर मरीजों के इलाज करने का अधिकार देना, पोस्ट गे्रजुएट में एडमिशन के लिए एक एग्जिट परीक्षा का प्रावधान और नीट की उपयोगिता को खत्म करना है। आईएमए ने बिल का विरोध करते हुए इसमें सुधार करने की मांग केन्द्र सरकार से की है।



तो क्यों हो रहा है विरोध?


इस बात पर तो कोई दोराय नहीं है कि गांवों तक बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने और डॉक्टरों की उपलब्धता बढ़ाने की ज़रूरत है. अब जो एनएमसी बिल लोकसभा में पास हुआ है, उसके ज़रिए सीएचपी व्यवस्था लागू हो सकेगी. ऐसे में, भारतीय मेडिकल एसोसिएशन और रेज़ीडेंट डॉक्टरों के संगठन इस​ बिल के विरोध में हैं. उनका कहना है कि इस तरह के कानून से ग्रामीण भारत में खराब क्वालिटी के यानी कम प्रशिक्षित डॉक्टर पहुंचेंगे, जिससे स्वास्थ्य सुधार नहीं बल्कि खतरा होगा.


लोकसभा में नेशनल मेडिकल कमीशन बिल पास हो चुका है, जानें कि भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं का क्या हाल है और क्यों यह बिल लाया जा रहा है.


देश में डॉक्टरों की कमी का मुद्दा हमेशा से रहा है, लेकिन इस दिशा में सुधार हो रहे हैं. फिर भी सवाल बना हुआ है कि किस गति से. गांवों में आज भी डॉक्टरों की भारी कमी बनी हुई है, जिसके चलते स्वास्थ्य सुधार की मुहिम के आंकड़े मज़बूत नहीं हैं. इन तमाम बातों को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने लोकसभा में नेशनल मेडिकल कमीशन बिल यानी एनएमसी बिल पास करवा दिया है. अगर ये बिल कानून बना तो कम्युनिटी हेल्थ प्रोवाइडर्स यानी सीएचपी के लिए लाइसेंसी व्यवस्था होगी, लेकिन दूसरी तरफ डॉक्टरों का एक वर्ग इस बिल का ​विरोध कर रहा है. अगर एनएमसी बिल कानून बन जाता है तो सीएचपी को प्राथमिक स्वास्थ्य की दिशा में आधुनिक इलाज की प्रैक्टिस करने का हक मिलेगा, जो अब तक सिर्फ एमबीबीएस डिग्रीधारकों के पास ही था. आख़िर इस तरह के कानून की ज़रूरत के पीछे क्या कहानी है? और गांवों में स्वास्थ्य सुधार को लेकर आंकड़े क्या हालात दर्शाते हैं?


बनाई जाएगी मेडिकल एडवाइजरी काउंसिल   
केंद्र सरकार एक एडवाइजरी काउंसिल बनाएगी जो मेडिकल शिक्षा और ट्रेनिंग के बारे में राज्यों को अपनी समस्यां साथ ही सुझाव रखने का मौका देगी। इतना ही नहीं काउंसिल मेडिकल शिक्षा को किस तरह बेहतर बनाया जाए इसे लेकर भी सुझाव देगी।


अब होगी मेडिकल की  एक ही  परीक्षा
कानून के लागू होने के साथ ही पूरे देश के मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए सिर्फ एक ही परीक्षा होगी। जिसका नाम होगा शनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट (NEET)।


मेडिकल प्रैक्टिस के लिए भी देना होगा टेस्ट 
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद भी डॉक्टरों को मेडिकल प्रैक्टिस करने के लिए टेस्ट देना होगा। वह यदि इस परीक्षा को पास करते है तभी उन्हें मैडिकल प्रैक्टिस करने के लिए लाइसेंस दिया जाएगा। इसी के आधार पर पोस्ट ग्रैजुएशन में एडमिशन किया जाएगा। इसपर डॉक्टरों का कहना है कि यदि कोई छात्र किसी वजह से एक बार एग्जिट परीक्षा नहीं दे पाया तो उसके पास दूसरा विकल्प नहीं है क्योंकि, इस बिल में दूसरी परीक्षा का विकल्प ही नहीं है। 



कुछ ऐसे हैं हालात


विश्व स्वास्थ्य संगठन के हिसाब से प्रति हज़ार मरीज़ों पर एक डॉक्टर होना आदर्श अनुपात है, लेकिन भारत में 1596 मरीज़ों पर एक डॉक्टर है. ज़ाहिर है ये सिर्फ ओवरव्यू है, ग्रामीण इलाकों में तो हालत और खराब हैं. क्वालिफाइड डॉक्टर शहरों में प्रैक्टिस करने में यकीन रखते हैं इसलिए गांवों में अच्छे डॉक्टरों की भारी कमी बनी हुई है. स्वास्थ्य क्षेत्र में मानव संसाधन की भारी कमी के चलते दो राज्यों ने पहल की थी, जिसकी तर्ज़ पर और राज्य भी आगे बढ़े.


डिप्लोमा ने सुधारा हेल्थ रिपोर्ट कार्ड


मध्य प्रदेश से अलग होकर 2001 में बने राज्य छत्तीसगढ़ के हिस्से में उस समय सिर्फ एक मेडिकल कॉलेज आया था और बहुत कम डॉक्टर. ऐसे में स्वास्थ्य समस्याओं से जूझने के लिए छत्तीसगढ़ ने प्राथमिक स्वास्थ्य की दिशा में सुधार के लिए तीन साल का डिप्लोमा कोर्स शुरू किया था और डिप्लोमाधारकों को ग्रामीण मेडिकल असिस्टेंट के तौर पर भर्ती किया था. इसी तरह, असम में 2005 में साढ़े तीन साल के कोर्स को पास करने वालों को कम्युनिटी हेल्थ वर्कर के तौर पर भर्ती किए जाने का सिलसिला शुरू हुआ. इन कोशिशों का नतीजा ये हुआ कि दोनों राज्यों में ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर सामान्य से ज़्यादा काबू पाया गया.

ग्रामीण क्षेत्रों में बुखार, डायरिया, पेट दर्द, संक्रमण जैसी बीमारियों के साथ ही, मलेरिया, डेंगू, टाइफाइड जैसी बीमारियां आम तौर से देखी जाती हैं. इसके साथ ही, नॉर्मल डिलीवरी के लिए बेहतर व्यवस्थाओं पर इस कार्यक्रम के तहत ज़ोर दिया गया. फलस्वरूप असम के ग्रामीण क्षेत्रों में बने मेडिकल सब सेंटरों में जहां 2010 में नॉर्मल डिलीवरी की दर दस फीसदी थी, वह 2013 में 93 फीसदी तक पहुंची


कई देशों में प्रचलित है ये तरीका


गांवों तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य कार्यकताओं या डिप्लोमा वाले डॉक्टरों को पहुंचाने का तरीका कई देशों में कारगर​ सिद्ध हुआ है. चीन में 1960 के दशक में इस तरह का स्वास्थ्य सुधार ढांचा बनाया गया था. नतीजा ये है कि अब हर गांव में कम से कम एक डॉक्टर 15 मिनट की वॉकिंग दूरी पर हमेशा उपलब्ध है. इसी तरह क्यूबा में इन डॉक्टरों को 'क्रांतिकारी डॉक्टर' नाम दिया गया. यहां दुनिया की सबसे बेहतर जीवन दर है यानी यहां औसत उम्र 80 साल है.


भारत में पहले था ये सिस्टम


आज़ादी से पहले भारत में भी ये सिस्टम था. एमबीबीएस डॉक्टर बहुत कम होते थे और लाइसेंसी डॉक्टर ज़्यादा. लाइसेंसी डॉक्टरों के लिए साढ़े तीन साल की पढ़ाई लाज़िमी होती थी, जबकि एमबीबीएस के लिए साढ़े पांच साल का कोर्स था. 1946 में भोरे समिति की रिपोर्ट बताती थी कि उस समय देश में कुल 47 हज़ार 524 पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टिशनर थे जिनमें से साढ़े 17 हज़ार एमबीबीएस और करीब 30 हज़ार लाइसेंसी थे. इसी समिति ने लाइसेंसियों को प्रतिबंधित किए जाने का फैसला किया था


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